School
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Deepak Goswami (GPS Kutail)

Deepak Goswami comes from a small village called Uncha Siwana in Karnal district. He completed his MSc degree and JBT from Karnal. Currently, he teaches in Government Primary School, Kutail. Every year, in the beginning of the academic year, he identifies children who have been performing below their class-level competencies. He then makes special focus groups of these children so that they can be at par with other children in terms of learning outcomes. Since his childhood, Deepak Sir always wanted to be become an able leader. He wants to invoke the same thinking among his students.... He often explores opportunities towards the development of the school through community involvement.Recently, he undertook a campaign to reach out to all Panchayats with low number of student enrollments in their village government school He called upon these Panchayats to come together for a rally to raise awareness and create a positive attitude towards Government Schools among the people. Along with his work as a Government School teacher, Deepak Sir is also proactively involved in social work. His focus lies on children deprived of education or those who do not have easy access to education. From the last one year, Deepak Sir has been closely associated with Varitra Foundation as an ally. He often shares how Varitra’s aim and objectives encourage him. He believes Varitra’s intervention in his school has motivated children to go beyond text-book knowledge and build exposure from the outside world. The fact that Varitra does not only work in schools with high enrollments but also with small and remote schools brings hope to him.

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Shri Bhagwan (GPS Hasanpur)

My name is Shree Bhagwan and I am from village Mahendergarh. I currently lead GPS Hasanpur as a Head Teacher. I have always had a deep interest and fascination with the world of education, and as I grew up, this thought transformed into a quest of teaching. I chose to take up the profession of a teacher. When I started working, I put up a lot of effort into my work. But this did not continue for a long time. The school I was placed in lacked staff and soon, my motivation started dropping. I was faced with the dual challenge .... of multi-grade and multi-level teaching, which was both new and difficult for me. Despite of all these odds, my spirit remained strong because of the connection I had with my children. The children turned out to be the source of strength for me throughout this difficult period. The community was always feeble in its support but the children kept me going. Last year, one of my students, Pallavi was selected to Jawahar Navodaya Vidalaya, an achievement which makes me very proud. Initially, her parents resisted the idea of sending her outside the village, but I made efforts to reach out to them and make them understand about this opportunity and the impact it could have on Pallavi. Today, those same parents aspire to send their other daughter to Navodaya. Personally, this fills me up with a sense of accomplishment and positivity. My experience with Varitra over the past two years has been a positive one. What really stood out throughout this association was the opportunity of stay actively connected with the community and adopt new methods of activity-based learning for the children.

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राजेन्द्र कुमार (रसूलपुर कलां)

मैं अकेला ही चला था मंजिल की तरफ, लोग जुड़ते गए और कारवाँ बनता गया| कुछ ऐसी ही शब्दों में अपना सफर बताते हैं राजेन्द्र कुमार जो। वर्तमान में राजेंद्र जी करनाल ब्लॉक के गाँव रसूलपुर कलां के सरकारी स्कूल में पढ़ाते हैं। वे करनाल के एक छोटे से गांव शाहपुर के रहने वाले हैं । उनकी पढ़ाई भी एक सरकारी स्कूल से ही हुई और बचपन से ही उनका सपना एक जे बी टी टीचर बनने का था। उनकी इस बात का रिश्तेदार, दोस्त कभी कभी मजाक भी बनाते थे कि बड़ा सोचो, यदि बड़ा सोचोगे तो ही कुछ मिलेगा। लेकिन उन्होंने टीचर बनना ठान रखा था। घर परिवार में उनके माता-पिता ही सभी फैसले लेते थे सो उनके माता- पिता ने भी उनकी बारहवीं पूरी हो जाने पर उनका दाखिला ITI करनाल में करा दिया। कभी कंप्यूटर, तो कभी इलेक्ट्रॉनिक्स में उन्हें सेट करने की पूरी कोशिशें की जा रही थी।... इन सब के अलावा उन्हें एक स्टेशनरी की दूकान भी खोल कर दे दी गयी ताकि वे अपना काम जमा सकें।लेकिन उन्होंने हार नही मानी और अपनी तैयारी में लगे रहे। जब घरवालों की हर कोशिश नाकाम होती नजर आयी तो आख़िरकार उन्हे छूट मिल ही गयी। उन्होंने इस उस छूट का भरपूर उपयोग किया और साल 2004 में टीचर बनने का सपना भी पूरा हो गया। राजेंद्र जी पहला स्कूल उनके लिए काफी यादगार रहा । एक तो सपने का सच हो जाना और दूसरा, एक अच्छे स्टाफ का साथ। वे कहते हैं की उनकी हेड टीचर से उन्हें बहुत प्रेरणा मिलती थी। वे पिछले 15 सालों से पढ़ा रहे हैं । जब रसूलपुर कलां में आये तो काफी दिक्कतों का सामना भी करना पड़ा। यमुना बेल्ट जैसे पिछड़े इलाके में काम करना अपने आप मे एक चुनौतीपूर्ण अनुभव था। पर उन्हें पहली बार एक हेड टीचर का रोल निभाने का मौका मिला और अब वे अपने इस मौके का अधिकतम लाभ उठाना चाहते थे क्योंकि उन्हें बदलाव लाना था। वे बताते हैं की एक बार उन्होंने अपने पुराने छात्र का इंटरव्यू अखबार में देखा जिसका जे बी टी टीचर के रूप में नियुक्ती की गयी थी। एक टीचर होने के नाते यह उनके लिए बहुत गर्व की बात होती है जब वे अपने बच्चों को कामयाब होते देखते हैं। उनका मानना है कि यदि आप कुछ अच्छा करने जा रहे हैं तो बस कर देना चाहिए। जब आप एक कदम उठाएंगे तो लोग खुद-ब-खुद साथ जुड़ते जाते हैं। ऐसे में जब उन्होंने पास के गाँवों में काम कर रही वारित्रा फाउंडेशन का नाम सुना। साथ मिलकर काम स्कूल के बदलाव पर काम करने की चाह ने स्कूल और वारित्रा को जोड़ दिया। संस्था के साथ राजेंद्र जी ने स्कूल के सौंदर्यीकरण, बच्चों के लर्निंग लेवल आदि पर काम किया। केवल 6 ही महीनों में उन्हें कुछ छात्रों में जो कि पढ़ने में काफी कमज़ोर थे, उनमें काफी बदलाव नज़र आया। इसे वे एक महत्वपूर्ण अचीवमेंट के रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि वे पहली दफा लीड कर रहे हैं व उनके पास लीडिंग एक्सपेरिएंस भले ही ज़्यादा न हो पर उन्हें लगता है की उनके इस सपने में वारित्रा उनका साथ दे रहा है। वे हमेशा चाहेंगे कि उनकी तरह दूसरे टीचर्स को भी यह मौका और मोटिवेशन मिलता रहे।

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Deepak Kumar / दीपक कुमार (फ़ैज़ालीपुर माजरा)

दीपक कुमार करनाल डिस्ट्रिक्ट के घरौंडा टाउन के रहने वाले हैं। वर्तमान में गवर्नमेंट प्राइमरी स्कूल, फ़ैज़अलीपुर माजरा में हेड टीचर के रूप में काम कर रहे हैं। उनकी शुरुआती पढ़ाई कॉमर्स में रही। वे बचपन से ही गवर्मेन्ट जॉब करना चाहता था पर उन्होंने टीचिंग का कभी तय नहीं था। एक दोस्त की सलाह पर उन्होंने जे बी टी में दाखिला ले लिया। लगभग 4 वर्षों तक प्राइवेट स्कूल में टीचिंग करते रहे व साथ ही अपनी पढ़ाई को जारी रखते हुए B।A।, B। Ed भी पूरी की। उसके बाद उन्हें एक गवर्मेन्ट टीचर के तौर पर काम करने का मौका मिला। आज उन्हीं टीचिंग करते हुए लगभग 20 वर्ष हो चुके हैं । जी पी एस, फ़ैज़अलीपुर माजरा उनका तीसरा स्कूल है। यहां पर काम करने का अनुभव उनके लिए पहले से अलग था क्योंकि इससे पहले जिन स्कूलों में उन्होंने काम किया था, वे इस स्कूल से बड़े और बेहतर हालत में थे। ... यह एक छोटा स्कूल था। यहाँ बच्चों की संख्या भी काफी कम थी। उनकी अचीवमेंट की बात करें तो दीपक जी कहते हैं कि स्कूल और वारित्रा के प्रयासों से बच्चों की संख्या में वृद्धि हुई है। पहले यहां 36 बच्चे हुआ करते थे पर आज स्कूल में 40 से ज़्यादा की संख्या है जो कि छोटा गाँव का देखते हुए महत्वपूर्ण बात है। एक अचीवमेंट यह भी रही कि उनका स्कूल पूरे ब्लॉक में सक्षम परीक्षा में टॉप पर रहा। जिसका एक अच्छा रिजल्ट रहा व टॉप आने पर मुख्यम्नत्री द्वारा स्कूल को सम्मानित भी किया गया। आज वारित्रा के साथ मिलकर काम करते हुए दीपक जी को लगभग दो साल हो गए हैं जिसमे स्कूल के सुधार और सौन्दर्यकरण, बच्चों के लर्निंग लेवल और गाँव में जागरूकता फैलाने पर बहुत काम हुआ। उनके लिए यह सफर बेहद दिलचस्प और सीख से भरा हुआ था।

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रणजीत सरपंच (खोरा-खेरी)

मेरा नाम रणजीत है और मैं खोरा-खेरी गाँव का निवासी हूँ| मैं गाँव के सरपंच पद पर कार्यरत्त हूँ | मेरी शुरूआती पढाई गाँव के ही स्कूल मे हुई और स्नातक की उपाधि प्राप्त की | गाँव के सरकारी स्कूल को लेकर सबकी एक अजीब सी सोच थी सबको लगता था कि यह स्कूल गाँव के गरीब बच्चों या जिनके बच्चे प्राइवेट स्कूल मे नहीं पढ़ सकते, ये सिर्फ उनके लिए ही है | जिस कारण कोई भी गाँव के स्कूल और बच्चों की शिक्षा पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था | जहाँ तक गाँव के विकास की बात है वो सिर्फ गाँव की सडको और वहां लगी लाइट्स से आंका जाता था | अकसर ये सब सवाल मेरे मन मे उठने लगते थे मैं गाँव के विकास के लिए बच्चों की शिक्षा प्रणाली और स्तर को सुधारना चाहता हूँ | लेकिन ये सिर्फ मेरे प्रयासों से मुमकिन नहीं था || एक सरपंच होने के नाते गाँव के विकास के लिए बुनियादी सुविधाओं पर काम किया | ... एक सरपंच होने के नाते गाँव के विकास के लिए बुनियादी सुविधाओं पर काम किया | लेकिन इन सब के साथ शिक्षा को भी प्राथमिक श्रेणी मे रखा | गाँव के सरकारी स्कूल की इमारत और बच्चों की बुनियादी सुविधाओं पर काम किया | गाँव वालों और स्कूल अध्यापकों की सहायता से स्कूल मे सुधार और शिक्षा के प्रति जागरूक किया | लेकिन गाँव के युवा को कैसे इस विकास मे भागीदार बनाया जाए और बच्चों को एक अच्छी और बेहतर शिक्षा मिल पाए इस पर मैं विचार करता रहा | इस दौरान मुझे आस-पास के गाँव से वारित्रा संस्था के काम के बारे मे पता चला, तो वारित्रा इस गाँव मे भी काम कर पाए, उसके लिए मैंने टीम से संपर्क किया | जब वारित्रा संस्था ने काम करना शुरू किया, बच्चों को अलग और नई चीज़े सीखने को मिली | LEC (Remedial classes) के माध्यम से गाँव के युवा वर्ग को साथ मे जोड़ा | वारित्रा संस्था ने LEC और लाइब्रेरी के माध्यम से बच्चों की शिक्षा को एक नई दिशा प्रदान की | बच्चों को खेल-खेल के माध्यम से आसानी से नई चीज़े सीखने को मिली | जो बच्चे किताबों से दूर भागते थे लाइब्रेरी के जरिये उन बच्चों कीपढने मे रूचि पैदा हुई | साथ ही युवा वर्ग को एक नया रास्ता दिखाया | गाँव वालों और अध्यापकों की तरफ से भी पूरा सहयोग मिला | वारित्रा की मदद सेबच्चों की शिक्षा बेहतर बन पाई |

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शेर सिंह (डबरकी खुर्द)

मेरा नाम शेर सिंह है और मैं डबरकी खुर्द गाँव का रहने वाला हूँ | मैं अपने गाँव के स्कूल की प्रबंधन कमेटी का सदस्य हूँ | मेरे बच्चे गाँव के सरकारी स्कूल मे ही पढ़ते है | अगर मैं अपने समय के बात कहूँ, तो उस समय आस-पास सिर्फ प्राथमिक स्कूल ही था और आगे पढने के लिए दूर जाना पढता था जिसके कारण ज्यादातर बच्चे अपनी पढाई छोड़ देते थे और मेरा गाँव अभी भी छोटी-छोटी बुनियादी सुविधाओ से वंचित है | जिस कारण ज्यादातर लोग या तो अनपढ़ है या कम पढ़े लिखे | जोकि अपने बच्चों के शिक्षा पर न तो ध्यान दे पाते है और न ही इसे जरुरी समझते है | गाँव मे प्राथमिक विद्यालय है जहाँ सिर्फ दो ही अध्यापक पढ़ाते है | स्कूल अध्यापक पूरी कोशिश करते है पर अभिभावकों के सहयोग की कही न कही कमी रह जाती है | जब वारित्रा संस्था ने यहाँ काम करना शुरू किया, तो बच्चों और शिक्षा के लिए नए रास्ते खुल गए | ... `LEC के माध्यम से बच्चों को मौका मिला कि वे स्कूल के बाद भी पढ़ पाए | साथ ही जो ए तरीके या खेल-खेल के माध्यम बच्चो को बहुत अच्छे लगते है और उनका हर रोज स्कूल मे आने का मन करता था | बच्चे हर रोज घर आकर खुद से बताते थे कि आज हमने ये सीखा, ये वाली कविता कही | मैं अक्सर अपने बच्चों से ये सब सुनता था | लाइब्रेरी के जरिये बच्चों को कहानियां पढने को मिली और वो जो भी कहानी पढ़ते या सुनते थे घर आकर जरुर सुनते थे | स्कूल प्रबधन कमेटी और एक अभिभावक होने के नाते मेरी कोशिश रहती है कि बच्चों की शिक्षा मे अपना सहयोग दे पाऊ | मैं अक्सर अपने गाँव के बच्चो को योग और अलग-अलग खेल कूद करवाने की कोशिश करता हूँ | वारित्रा की मदद से बच्चों को नई चीज़े सीखने को मिली और मेरे गाँव के बच्चों के चेहरों पर एक मुस्कान आई |