सीखने-सीखाने का सफर

सीखने-सीखाने का सफर

“मैं अकेला ही चला था मंजिल की तरफ, लोग जुड़ते गए और कारवाँ बनता गया”कुछ ऐसी ही शब्दों में अपना सफर बताते हैं राजेन्द्र कुमार जो। वर्तमान में राजेंद्र जी करनाल ब्लॉक के गाँव रसूलपुर कलां के सरकारी स्कूल में पढ़ाते हैं। वे करनाल के एक छोटे से गांव शाहपुर के रहने वाले हैं । उनकी पढ़ाई भी एक सरकारी स्कूल से ही हुई और बचपन से ही उनका सपना एक जे बी टी टीचर बनने का था। उनकी इस बात का रिश्तेदार, दोस्त कभी कभी मजाक भी बनाते थे कि बड़ा सोचो, यदि बड़ा सोचोगे तो ही कुछ मिलेगा। लेकिन उन्होंने टीचर बनना ठान रखा था। घर परिवार में उनके माता-पिता ही सभी फैसले लेते थे सो उनके माता- पिता ने भी उनकी बारहवीं पूरी हो जाने पर उनका दाखिला ITI करनाल में करा दिया। कभी कंप्यूटर, तो कभी इलेक्ट्रॉनिक्स में उन्हें सेट करने की पूरी कोशिशें की जा रही थी। इन सब के अलावा उन्हें एक स्टेशनरी की दुकान भी खोल कर दे दी गयी ताकि वे अपना काम जमा सकें।लेकिन उन्होंने हार नही मानी और अपनी तैयारी में लगे रहे। जब घरवालों की हर कोशिश नाकाम होती नजर आयी तो आख़िरकार उन्हे छूट मिल ही गयी। उन्होंने इस उस छूट का भरपूर उपयोग किया और साल 2004 में टीचर बनने का सपना भी पूरा हो गया। राजेंद्र जी पहला स्कूल उनके लिए काफी यादगार रहा ।

एक तो सपने का सच हो जाना और दूसरा, एक अच्छे स्टाफ का साथ। वे कहते हैं की उनकी हेड टीचर से उन्हें बहुत प्रेरणा मिलती थी। वे पिछले 15 सालों से पढ़ा रहे हैं । जब रसूलपुर कलां में आये तो काफी दिक्कतों का सामना भी करना पड़ा। यमुना बेल्ट जैसे पिछड़े इलाके में काम करना अपने आप मे एक चुनौतीपूर्ण अनुभव था। पर उन्हें पहली बार एक हेड टीचर का रोल निभाने का मौका मिला और अब वे अपने इस मौके का अधिकतम लाभ उठाना चाहते थे क्योंकि उन्हें बदलाव लाना था। वे बताते हैं की एक बार उन्होंने अपने पुराने छात्र का इंटरव्यू अखबार में देखा जिसका जे बी टी टीचर के रूप में नियुक्ति की गयी थी। एक टीचर होने के नाते यह उनके लिए बहुत गर्व की बात होती है जब वे अपने बच्चों को कामयाब होते देखते हैं। उनका मानना है कि यदि आप कुछ अच्छा करने जा रहे हैं तो बस कर देना चाहिए। जब आप एक कदम उठाएंगे तो लोग खुद-ब-खुद साथ जुड़ते जाते हैं। ऐसे में जब उन्होंने पास के गाँवों में काम कर रही वारित्रा फाउंडेशन का नाम सुना। साथ मिलकर काम स्कूल के बदलाव पर काम करने की चाह ने स्कूल और वारित्रा को जोड़ दिया। संस्था के साथ राजेंद्र जी ने स्कूल के सौंदर्यीकरण, बच्चों के लर्निंग लेवल आदि पर काम किया। केवल 6 ही महीनों में उन्हें कुछ छात्रों में जो कि पढ़ने में काफी कमज़ोर थे, उनमें काफी बदलाव नज़र आया। इसे वे एक महत्वपूर्ण अचीवमेंट के रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि वे पहली दफा लीड कर रहे हैं व उनके पास लीडिंग एक्सपेरिएंस भले ही ज़्यादा न हो पर उन्हें लगता है की उनके इस सपने में वारित्रा उनका साथ दे रहा है। वे हमेशा चाहेंगे कि उनकी तरह दूसरे टीचर्स को भी यह मौका और मोटिवेशन मिलता रहे।


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